भारत स्वाभिमान न्यास (ट्रस्ट) की नींव

स्वदेशी चिकित्सा पद्धति योग, आयुर्वेद व प्राकृतिक चिकित्सा से देश के अन्तिम व्यक्ति को आरोग्य देना, भारतीय भाषाओं में देश के बच्चों को शिक्षा व संस्कार देकर, शिक्षा का स्वदेशीकरण व भारतीयकरण करना, भ्रष्टाचार व आर्थिक असंतुलन को मिटाकर देश के सम्पूर्ण संसाधनों में देश के सब लोगों को सहभागी बनाकर देश की बेरोजगारी, गरीबी,भूख व अभाव को दूर करना, जल प्रबन्धन, कृषि के औद्योगीकरण, पर्यावरण की रक्षा स्वच्छता व जनसंख्या के नियन्त्रण से तथा स्वदेशी की नीतियों एवं भारतीय सांस्कृतिक व आध्यात्मिक परम्पराओं की रक्षा करके भारत की एक आदर्श आध्यात्म्कि राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठापना कर देश को विश्व की सर्वोच्च महाशक्ति के रूप में खड़ा करने के उद्देश्य से भारत स्वाभिमान न्यास (ट्रस्ट) की स्थापना की गई।

भारत स्वाभिमान ट्रस्ट का इतिहास

भारत स्वाभिमान न्यास का गठन वर्ष 2009 को हुआ था। भारत स्वाभिमान संगठन की स्थापना के मात्र 2 महीनों में ही भारत के 600 जिलों में भारत स्वाभिमान की विभिन्न शाखाएँ स्थापित हो गईं। इस संगठन का विस्तार करते हुए जून 2009 में इसकी शाखाओं को 4000 तहसीलों तक विस्तारित किया गया। आज पूरे भारत में हर जिले में भारत स्वाभिमान न्यास के लगभग 10,000 से 50,000 कार्यकारी सदस्य हैं और हमारे देश के लगभग 120 करोड़ लोग इस संगठन को पसंद करते हैं। और इस संगठन से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं।

योग-धर्म से राष्ट्र-धर्म तक

हम प्रत्येक व्यक्ति को योगधर्म से जोड़कर उसके भीतर राष्ट्रधर्म की अलख जगाना चाहते हैं। हम योग-शक्ति से जन-जन में राष्ट्रभक्ति का जज्बा भरना चाहते हैं। हम हर सुबह योग द्वारा आत्मोन्नति कर अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा को राष्ट्रोन्नति में लगाना चाहते हैं। हम योग से आत्मजागरण कर राष्ट्र-जागरण के पुण्य अभियान को आगे बढ़ाना चाहते हैं। बहुत से लोगों के मन में प्रश्न उत्पन्न होता है कि योग एवं देश का विकास इनका क्या सम्बन्ध है? तो हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि बिना आत्मविकास किये राष्ट्र का विकास एक सपना है। अतः प्रत्येक प्रभात में हम आपके आत्मविकास कर, पूरे दिन राष्ट्र के विकास या समृद्धि के लिए समर्पित होंगे। योगधर्म एवं राष्ट्रधर्म विरोधाभाषी विचारधाराएं नहीं, अपितु एक दूसरे की पूरक हैं।

हमारे संगठन की संस्कृति

हमारे संगठन की संस्कृति "करिष्ये वचनं तव" की संस्कृति है। संशय, भ्रम, उलझन, नकारात्मकता, निराशा, अविश्वास, आत्मग्लानि व कुतर्क को छोड़कर आत्म-परिवर्तन व व्यवस्था-परिवर्तन के राष्ट्रहित के इस यज्ञ में स्वयं को आहूत कर देना व गुरु के आदेशों एवं अपने वरिष्ठों के निर्देशों का 100 प्रतिशत अनुपालन करना यही संगठन की आदर्श संस्कृति है।

संगठन के सप्त सिद्धान्त व सप्त मर्यादायें

राष्ट्रवाद, पराक्रमशीलता, विनयशीलता, दूरदर्शिता, पारदर्शिता, अध्यात्मवाद, मानवतावाद ये सप्त-सिद्धान्त और शाकाहारी, निर्व्यसनी, स्वस्थ समर्थ, समर्पित व गैर-राजनैतिक जीवन, राष्ट्रहित, में प्रतिदिन कम से कम दो घण्टे समय देने के लिए प्रतिबद्धता इत्यादि हमारे संगठन की सप्त मर्यादायें हैं। हमें अपने दैनिक जीवन में इनका 100 प्रतिशत पालन करना है। (विस्तृत जानकारी के लिए पुस्तक "जीवन दर्शन" पढ़े)।

जीवन के प्रति दृष्टिकोण

अपने शरीर, इन्द्रियों व मन पर पूर्ण संयम रखते हुए स्वयं को भगवान के हाथों में सौंप दें। फिर जीवन में जो कुछ घटित होगा, वह शुभ होगा। जीवन में सफलता, सिद्धि व समाधि सहज उपलब्ध होगी।

आत्म परिवर्तन से व्यवस्था परिवर्तन

हमें इस व्यवस्था परिवर्तन की शुरूआत स्वयं से करनी है। अर्थात् आत्म-परिवर्तन से व्यवस्था-परिवर्तन के इस आन्दोलन से तन, मन, धन, आत्मा व वतन को हमें समस्त पराधीनताओं से मुक्त कराकर सम्पूर्ण स्वाधीनता के साथ जीना है। आत्म-पविर्तन से हमारा अभिप्राय निम्न प्रकार से है कि भारत स्वाभिमान की मुख्य पाँच नीतियों के संदर्भ में जिन कार्यों को करने में हम स्वयं पराधीन नहीं हैं उन लक्ष्यों व उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए हमें पूरी ऊर्जा को अभी से लगा देना है। तथा व्यवस्था परिवर्तन के बड़े संघर्ष के लिए राष्ट्र में जनशक्ति खड़ी करनी है।

कार्यकर्ताओं की चार निष्ठाएं व चार गौरव

सभी कार्यकर्ताओं को इस राष्ट्रयज्ञ में कार्य करते हुए अपने हृदय में चार प्रकार की निष्ठाएं व चार प्रकार के गौरव का भाव महसूस करना चाहिए।

चार निष्ठाएँ-
  1. गुरु निष्ठा
  2. ईश्वर निष्ठा
  3. राष्ट्र निष्ठा
  4. संगठन निष्ठा
चार गौरव-
  1. आत्म गौरव
  2. राष्ट्र गौरव
  3. संगठन गौरव
  4. सनातन गौरव
संगठन सम्बोधन, अभिवादन एवं जयघोष

संगठन के किसी भी बैठक को श्रद्धेय स्वामी जी महाराज एवं पूज्य आचार्य श्री के साथ-साथ सम्पूर्ण ऋषि व गुरू सत्ता की आध्यात्मिक उपस्थिति को प्रणाम् करते हुए कार्यक्रम का प्रारम्भ करना है।

  • अपने संगठन के प्रणेता स्वामी जी महाराज के लिए "परम श्रद्धेय"
  • आयुर्वेद शिरोमणि आचार्य श्री के लिए "परम पूज्य"
  • मुख्य केन्द्रीय प्रभारी, केन्द्रीय प्रभारी व प्रान्तीय प्रभारी "आदरणीय"
  • साधु-संत, संन्यासियों, महात्माओं, गुरू व स्थानीय महापुरूषों के लिए पूज्य, श्रद्धेय व परमादरणीय।
  • संगठन में परस्पर एक-दूसरे को सम्मान पूर्वक सम्बोधन के लिए "आदरणीय" आदि शब्दों का प्रयोग करें।