गुरु पूर्णिमा

प्रतिवर्ष आषाढ़ माह की पूर्णिमा को हम गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाते हैं लेकिन कई सदियों के बाद ऐसा संयोग बनता है कि असली शिष्य और किसी समर्थ गुरु का मिलन होता है, जिससे वे दो आत्माएं ही नहीं अपितु यह समस्त धरा धन्य हो जाती है और तब सच्ची गुरु पूर्णिमा मनाई जाती है। यह गुरु-शिष्य का मिलन बड़ी अद्भुत घटना है, बड़ी महान् है और सम्बन्धों की शृंखला में सर्वोच्च सम्बन्ध है क्योंकि इस सम्बन्ध में पवित्रता, ज्ञान, अहंकार शून्यता, विवेक, नि:स्वार्थता, सेवा व समर्पण की पराकाष्ठा होती है।

आदिकाल से अद्यपर्यन्त ये घटनाएं घटित होती ही आयी हैं-गुरु वशिष्ठ व राम, घोर ऋषि व कृष्ण, श्रीकृष्ण व अर्जुन, समर्थ गुरु रामदास व छत्रपति शिवाजी, चाणक्य व चन्द्रगुप्त, रामकृष्ण परमहंस व विवेकानन्द, गुरु विरजानन्द व ऋषि दयानन्द आदि नाम इस पावनी परम्परा के गौरव हैं। यहाँ यह जिज्ञासा होती है कि पहले गुरु का अस्तित्व होता है या शिष्य का? यह ऐसी ही जिज्ञासा है जैसे कि पहले माँ का अस्तित्व है या बच्चे का? स्थूल दृष्टि से देखें तो झट से उत्तर आता है कि गुरु और माँ का अस्तित्व पहले है लेकिन गम्भीरता से विचार करें तो दोनों का अस्तित्व साथ-साथ विकसित होता है इसीलिए वेदमन्त्र में कहा-'सह वीर्यं करवावहै’ क्योंकि जब तक बच्चा गर्भ में न आये तब तक कोई महिला माँ नहीं बनती। जैसे ही शिशु गर्भ में आता है, वह माँ बनना शुरु हो जाती है और जैसे ही बच्चे का जन्म होता है वह माँ बन जाती है अर्थात् मातृत्व प्रकट हो जाता है, माँ के स्तनों में दूध उतर आता है। उसी प्रकार शिष्यत्व का जन्म होते ही गुरुत्व प्रकट हो जाता है। शिष्यत्व से अभिप्राय है श्रद्धा, सत्य, अभिप्सा, पवित्रता, विवेक, वैराग्य, आत्म निग्रह, निष्काम सेवा, तत्त्व चिन्तन, समर्पण और अध्यवसाय अर्थात् सत्य को पाने का दृढ़ निश्चय, उपरोक्त ये 10 गुण जब हममें आ जाते हैं तो शिष्यत्व अभिव्यक्त हो जाता है और तभी गुरुत्व भी प्रकट होता है, उससे पहले नहीं। तभी गुरु हमारा रूपान्तरण करना शुरु कर देते हैं। किन्तु यह शिष्यत्व का जन्म होना बहुत बड़ी घटना है और इसकी समाप्ति भक्त बनने में होती है।

गुरुब्र्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवोमहेश्वर:,
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नम:।’

इस श्लोक में महेश्वर अर्थात् विध्वंसक शब्द तीसरे नम्बर पर आया है पर वास्तव में नवनिर्माण के लिए पहला कार्य है- विध्वंस। जब तक मिट्टी के कच्चे झोपड़े को तोड़ेंगे नहीं तब पक्का सुन्दर महल बनेगा कैसे? और बनाने के पश्चात् उसका रख-रखाव करना बहुत जरूरी है इसी का नाम है विष्णु। इसलिए वेद में भी आचार्य का प्रथम रूप मृत्यु ही बताया है। सर्वप्रथम आचार्य हमारे दोषों को, दुराग्रहों को, दुर्बलताओं को तोड़ता है यहाँ से शिष्य गुरु के गर्भ में आ जाता है और जन्म होने के बाद द्विज और भक्त बन जाता है। भक्त हो जाना जीवन की पूर्णता है। भक्त से अभिप्राय है उसी के स्वरूप वाला हो जाना। इसलिए श्लोक में कहा ‘‘गुरुर्साक्षात् परबह्म" अर्थात् तब भक्त को गुरु में किसी इन्सान के नहीं अपितु भगवान् के ही दर्शन होने लगते हैं। यह पर्व पूर्णिमा को ही मनाया जाता है अर्थात् ‘‘गुरुपूर्णिमा’’गुरु अमावस्या, गुरु प्रथमा अथवा गुरु एकादशी, कोई भी तिथि हो सकती थी, पूर्णिमा ही क्यों? क्योंकि रात्री के सम्पूर्ण तिमिर का नाश पूर्णिमा का चन्द्र ही कर पाता है।

सूर्य और रात्री का मिलन तो सम्भव नहीं है, इसलिए चन्द्र ही रात्री तिमिर का नाश कर सकता है। सूर्य तो परम-पिता परमात्मा है और गुरु चन्द्रमा है, शिष्य रात्री के समान है। शिष्य का डायरेक्ट सम्बन्ध परमात्मा से नहीं होता बीच में गुरु जरूरी है। यद्यपि चन्द्रमा में भी प्रकाश तो सूर्य का ही है अपना निजी नहीं, पर रात्री के साथ मिलन चन्द्र का ही सम्भव है। इसी प्रकार गुरु में भी ज्ञान, सामथ्र्य, शक्तियाँ सब परमात्मा की ही हैं परन्तु परमात्मा का साक्षात प्रतिनिधि होता है गुरु, जो शिष्य को अपने ही जैसा बना देता है। अग्नि में पड़ा हुआ कोयला भी चमचमाने लगता है, यह अग्नि की महिमा है, यही गुरु की महिमा है। गुरु अपने शिष्य को अपने ही जैसा बना देता है और यदि शिष्य उससे भी आगे निकल जाये तो उसे परम प्रसन्नता होती है। अत: आइये इस गुरुपूर्णिमा के पावन पर्व पर हम शिष्य बनने की शुरूआत करें।